वो ऊँची इमारतों की चोटियों में खो गया आसमान
फैक्टरियों के धुंए में छुप गए बादल
दब गयी मोटरो के हॉर्न में वो गूँज
चिड़ियों के चहकने और कबूतरों की गुटरगूँ
स्टेशन की टीन की छत पर ही सिमट गयी
रह गई वहीं गांव की पगडंडी पर
अंगीठी की महक ,कच्ची मिट्टी की खुशबू.
अपनी ही जड़ों में पहुंचने के लिए
दूर ,बहुत दूर जाना पड़ता है मुझे.
वो “पाए लागूं” से “Good morning Mom” का सफर
कच्चे घरों से penthouse flat लेआया मगर
खो गई खेतों में सर्दियों की कच्ची धूप
रखा करता था जब मां के आंचल में सर.
“खाना खा लिया बेटा” आवाज अब दूर हो गई है
हर वक्त ऑनलाइन हूं, वो भी मजबूर हो गई है
आज कानों में सुनने वही पुकार
दूर बहुत दूर जाना पड़ता है मुझे
शहर में बसकर sirname भी हट गया
लोग जिक्र करते हैं फिर भी
नाम मेरा बड़ा हो गया
मेरे Prefix का जिक्र करते हैं शायद
डॉक्टर साहब सुनने की हो गई है कवायद.
“अरे ओ सुन” पिताजी की रोबीली आवाज
जो पड़ती थी कानों में हरदम
गांव से शहर पहुंचकर पड़ गई
फीकी, धीमी और मद्धम
इस शोर ए सन्नाटा से सुनने उस मौन की गूंज
दूर, बहुत दूर जाना पड़ता है मुझे
शादी की लाल चूड़ियों की उसकी खनखनाहट
वह भी अब कुछ धीमी हो गई ह
ैकुछ चिटक गई चूल्हे चौके में ,
बिखर गई कुछ बच्चों के पोतङो में
Gold bracelet पहन अपना काम चला लेती है
करे ना कोई रीति रिवाज की बात
इतना वो कमा लेती है
घर से ऑफिस ,ऑफिस से घर
रहकर फिर भी एक छत के अंदर
हाथ बंटाने ,हाथ थामने उसका
दूर ,बहुत दूर जाना पड़ता है मुझे
नई पीढ़ी की race तो अब और fast हो गई है
गांव से शहर ,शहर से Metro
बड़ा Generation Gap हो गया है
हमारा classical से disco का सफर उनका अब Disco से Western Rap हो गया है
पापा की पीठ पर जो चलाते थे घोड़ा
विदेशों की connecting flights पकडने लगे हैं
सपनों की ऊंची उड़ान को उनकी
हकीकत में बदलने फिर भी
दूर, बहुत दूर जाना पड़ता है मुझे
आदित्य रतन
Such a wonderful piece of poetry